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SET-18 | सामान्य हिन्दी 360° | General Hindi 360°

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सामान्य हिन्दी 360° | कारक | SET-18


कारक - परिभाषा, भेद और उदाहरण : हिन्दी व्याकरण

कारक क्या होता है?
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उसके सम्बन्ध का बोध होता है, उसे कारक कहते हैं।
हिन्दी में आठ कारक होते हैं- कर्ता , कर्म , करण, सम्प्रदान , अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण और सम्बोधन । विभक्ति या परसर्ग-जिन प्रत्ययों से कारकों की स्थितियों का बोध होता है, उन्हें विभक्ति या परसर्ग कहते हैं।

कारक के विभक्ति चिह्न या परसर्ग
कारक विभक्ति - संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के बाद ‘ने, को, से, के लिए’, आदि जो चिह्न लगते हैं वे चिह्न कारक 'विभक्ति' कहलाते हैं। अथवा - व्याकरण में शब्द (संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण) के आगे लगा हुआ वह प्रत्यय या चिह्न विभक्ति कहलाता है जिससे पता लगता है कि उस शब्द का क्रियापद से क्या संबंध है।
कारक के उदाहरण : 
1. राम ने रावण को बाण मारा।
2. रोहन ने पत्र लिखा।
3. मोहन ने कुत्ते को डंडा मारा।
कारक चिह्न स्मरण करने के लिए इस पद की रचना की गई हैं-

विशेष - कर्ता से अधिकरण तक विभक्ति चिह्न (परसर्ग) शब्दों के अंत में लगाए जाते हैं, किन्तु संबोधन कारक के चिह्न-हे, रे, आदि प्रायः शब्द से पूर्व लगाए जाते हैं।
कारक के भेद
क्रम ■ कारक ■ चिह्न ■ अर्थ
1 ■ कर्ता ■ ने ■ काम करने वाला
2 ■ कर्म■  को ■ जिस पर काम का प्रभाव पड़े
3 ■ करण ■ से, द्वारा ■ जिसके द्वारा कर्ता काम करें
4 ■ सम्प्रदान ■ को, के लिए ■ जिसके लिए क्रिया की जाए
5 ■ अपादान■  से (अलग होना) ■ जिससे अलगाव हो
6 ■ सम्बन्ध ■ का, की, के; ना, नी, ने; रा, री, रे ■ अन्य पदों से सम्बन्ध
7 ■ अधिकरण ■ में, पर ■ क्रिया का आधार
8 ■ संबोधन ■ हे! अरे! अजी! ■ किसी को पुकारना, बुलाना

1. कर्ता कारक
जिस रूप से क्रिया (कार्य) के करने वाले का बोध होता है वह कर्ता कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘ने’ है। इस ‘ने’ चिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है। इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है। 
या
जो वाक्य में कार्य करता है उसे कर्ता कहा जाता है। अथार्त वाक्य के जिस रूप से क्रिया को करने वाले का पता चले उसे कर्ता कहते हैं। कर्ता कारक की विभक्ति ने होती है। ने विभक्ति का प्रयोग भूतकाल की क्रिया में किया जाता है। कर्ता स्वतंत्र होता है। कर्ता कारक में ने विभक्ति का लोप भी होता है। इस पद को संज्ञा या सर्वनाम माना जाता है। हम प्रश्नवाचक शब्दों के प्रयोग से भी कर्ता का पता लगा सकते हैं। संस्कृत का कर्ता ही हिंदी का कर्ताकारक होता है। कर्ता की ने विभक्ति का प्रयोग ज्यादातर पश्चिमी हिंदी में होता है। ने का प्रयोग केवल हिंदी और उर्दू में ही होता है। जैसे-
1. राम ने रावण को मारा।
2. लड़की स्कूल जाती है।
पहले वाक्य में क्रिया का कर्ता राम है। इसमें ‘ने’ कर्ता कारक का विभक्ति-चिह्न है। इस वाक्य में ‘मारा’ भूतकाल की क्रिया है। ‘ने’ का प्रयोग प्रायः भूतकाल में होता है। दूसरे वाक्य में वर्तमानकाल की क्रिया का कर्ता लड़की है। इसमें ‘ने’ विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ है। 

विशेष- भूतकाल में अकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ भी ने परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं लगता है। जैसे- वह हँसा।
वर्तमानकाल व भविष्यतकाल की सकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ ने परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। जैसे- वह फल खाता है।, वह फल खाएगा।

कभी-कभी कर्ता के साथ ‘को’ तथा ‘स’ का प्रयोग भी किया जाता है। जैसे- बालक को सो जाना चाहिए।, सीता से पुस्तक पढ़ी गई।, रोगी से चला भी नहीं जाता।, उससे शब्द लिखा नहीं गया।
कर्ता कारक का प्रयोग
1. परसर्ग सहित
2. परसर्ग रहित

1. परसर्ग सहित :
भूतकाल की सकर्मक क्रिया में कर्ता के साथ ने परसर्ग लगाया जाता है। जैसे :- राम ने पुस्तक पढ़ी।
प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ ने का प्रयोग किया जाता हैं। जैसे :- मैंने उसे पढ़ाया।
जब संयुक्त क्रिया के दोनों खण्ड सकर्मक होते हैं तो कर्ता के आगे ने का प्रयोग किया जाता है। जैसे :- श्याम ने उत्तर कह दिया।

2. परसर्ग रहित :
भूतकाल की अकर्मक क्रिया में परसर्ग का प्रयोग नहीं किया जाता है। जैसे :- राम गिरा।
वर्तमान और भविष्यकाल में परसर्ग नहीं लगता। जैसे :- बालक लिखता है।
जिन वाक्यों में लगना , जाना , सकना , चूकना आदि आते हैं वहाँ पर ने का प्रयोग नहीं किया जाता हैं। जैसे :- उसे पटना जाना है।

कर्ता कारक में को का प्रयोग
विधि क्रिया और संभाव्य बहुत में कर्ता प्राय: को के साथ आता है। जैसे:- राम को जाना चाहिए।

2. कर्म कारक
क्रिया के कार्य का फल जिस पर पड़ता है, वह कर्म कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘को’ है। यह चिह्न भी बहुत-से स्थानों पर नहीं लगता। बुलाना , सुलाना , कोसना , पुकारना , जमाना , भगाना आदि क्रियाओं के प्रयोग में अगर कर्म संज्ञा हो तो को विभक्ति जरुर लगती है। जब विशेषण का प्रयोग संज्ञा की तरह किया जाता है तब कर्म विभक्ति को जरुर लगती है। कर्म संज्ञा का एक रूप होता है। जैसे-
1. मोहन ने साँप को मारा।
2. लड़की ने पत्र लिखा।
पहले वाक्य में ‘मारने’ की क्रिया का फल साँप पर पड़ा है। अतः साँप कर्म कारक है। इसके साथ परसर्ग ‘को’ लगा है। दूसरे वाक्य में ‘लिखने’ की क्रिया का फल पत्र पर पड़ा। अतः पत्र कर्म कारक है। इसमें कर्म कारक का विभक्ति चिह्न ‘को’ नहीं लगा।
कर्म कारक के अन्य उदाहरण :
1. अध्यापक छात्र को पीटता है।
2. सीता फल खाती है।
3. ममता सितार बजा रही है।
4. राम ने रावण को मारा।
5. गोपाल ने राधा को बुलाया।
6. मेरे द्वारा यह काम हुआ।
7. कृष्ण ने कंस को मारा।
8. राम को बुलाओ।
9. बड़ों को सम्मान दो।
10. माँ बच्चे को सुला रही है।
11. उसने पत्र लिखा।

3. करण कारक
संज्ञा आदि शब्दों के जिस रूप से क्रिया के करने के साधन का बोध हो अर्थात् जिसकी सहायता से कार्य संपन्न हो वह करण कारक कहलाता है। इसके विभक्ति-चिह्न ‘से’ के ‘द्वारा’ है। जैसे-
1. अर्जुन ने जयद्रथ को बाण से मारा।
2. बालक गेंद से खेल रहे है।
पहले वाक्य में कर्ता अर्जुन ने मारने का कार्य ‘बाण’ से किया। अतः ‘बाण से’ करण कारक है। दूसरे वाक्य में कर्ता बालक खेलने का कार्य ‘गेंद से’ कर रहे हैं। अतः ‘गेंद से’ करण कारक है।

4. संप्रदान कारक
संप्रदान का अर्थ है-देना। अर्थात कर्ता जिसके लिए कुछ कार्य करता है, अथवा जिसे कुछ देता है उसे व्यक्त करने वाले रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। लेने वाले को संप्रदान कारक कहते हैं। इसके विभक्ति चिह्न ‘के लिए’ को हैं। इसको किसके लिए' प्रश्नवाचक शब्द लगाकर भी पहचाना जा सकता है। समान्य रूप से जिसे कुछ दिया जाता है या जिसके लिए कोई कार्य किया जाता है उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं। जैसे -
1. स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो।
2. गुरुजी को फल दो।
इन दो वाक्यों में ‘ स्वास्थ्य के लिए’ और ‘गुरुजी को’ संप्रदान कारक हैं।
संप्रदान कारक के अन्य उदाहरण :
1. गरीबों को खाना दो।
2. मेरे लिए दूध लेकर आओ।
3. माँ बेटे के लिए सेब लायी।
4. अमन ने श्याम को गाड़ी दी।
5. मैं सूरज के लिए चाय बना रहा हूँ।
6. मैं बाजार को जा रहा हूँ।
7. भूखे के लिए रोटी लाओ।
8. वे मेरे लिए उपहार लाये हैं।
9. सोहन रमेश को पुस्तक देता है।
10. भूखों को अन्न देना चाहिए।
11. मोहन ब्राह्मण को दान देता है।

5. अपादान कारक
संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी से अलग होना पाया जाए वह अपादान कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘से’ है। इसकी पहचान किससे जैसे' प्रश्नवाचक शब्द से भी की जा सकती है। जैसे-
1. बच्चा छत से गिर पड़ा।
2. संगीता घोड़े से गिर पड़ी।
इन दोनों वाक्यों में ‘छत से’ और घोड़े ‘से’ गिरने में अलग होना प्रकट होता है। अतः घोड़े से और छत से अपादान कारक हैं।

6. संबंध कारक
शब्द के जिस रूप से किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध प्रकट हो वह संबंध कारक कहलाता है। इसका विभक्ति चिह्न ‘का’, ‘के’, ‘की’, ‘रा’, ‘रे’, ‘री’ है। इसकी विभक्तियाँ संज्ञा , लिंग , वचन के अनुसार बदल जाती हैं। जैसे-
1. यह राधेश्याम का बेटा है। 
2. यह कमला की गाय है।
इन दोनों वाक्यों में ‘राधेश्याम का बेटे’ से और ‘कमला का’ गाय से संबंध प्रकट हो रहा है। अतः यहाँ संबंध कारक है। 
जहाँ एक संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध दूसरी संज्ञा या सर्वनाम से सूचित होता है, वहाँ सम्बन्ध कारक होता है। इसके विभक्ति चिह्न का, की, के; रा, री, रे; ना, नी, ने हैं। जैसे-
1. राम का लड़का, श्याम की लड़की, गीता के बच्चे।
2. मेरा लड़का, मेरी लड़की, हमारे बच्चे।
3. अपना लड़का, अपना लड़की, अपने लड़के।

7. अधिकरण कारक
शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसके विभक्ति-चिह्न ‘में’, ‘पर’ हैं। भीतर , अंदर , ऊपर , बीच आदि शब्दों का प्रयोग इस कारक में किया जाता है। इसकी पहचान किसमें , किसपर, किस पे आदि प्रश्नवाचक शब्द लगाकर भी की जा सकती है। कहीं कहीं पर विभक्तियों का लोप होता है तो उनकी जगह पर किनारे , आसरे , दीनों , यहाँ , वहाँ , समय आदि पदों का प्रयोग किया जाता है। कभी कभी में के अर्थ में पर और पर के अर्थ में में लगा दिया जाता है। जैसे-
1. भँवरा फूलों पर मँडरा रहा है।
2. कमरे में टी.वी. रखा है।
इन दोनों वाक्यों में ‘फूलों पर’ और ‘कमरे में’ अधिकरण कारक है। 
अधिकरण कारक के अन्य उदाहरण :
1. हरी घर में है।
2. पुस्तक मेज पर है।
3. पानी में मछली रहती है।
4. फ्रिज में सेब रखा है।
5. कमरे के अंदर क्या है।
6. कुर्सी आँगन के बीच बिछा दो।
7. महल में दीपक जल रहा है।
8. मुझमें शक्ति बहुत कम है।
9. रमा ने पुस्तक मेज पर रखी।
10. वह सुबह गंगा किनारे जाता है।
11. कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ था।
12. तुम्हारे घर पर चार आदमी है।
13. उस कमरे में चार चोर हैं।

8. संबोधन कारक
जिससे किसी को बुलाने अथवा सचेत करने का भाव प्रकट हो उसे संबोधन कारक कहते है और संबोधन चिह्न (!) लगाया जाता है। जैसे-
1. अरे भैया ! क्यों रो रहे हो ?
2. हे गोपाल ! यहाँ आओ।
इन वाक्यों में ‘ अरे भैया’ और ‘ हे गोपाल ’ ! संबोधन कारक है।
कर्म कारक और सम्प्रदान कारक में अंतर :
इन दोनों कारक में को विभक्ति का प्रयोग होता है। कर्म कारक में क्रिया के व्यापार का फल कर्म पर पड़ता है और सम्प्रदान कारक में देने के भाव में या उपकार के भाव में को का प्रयोग होता है। जैसे :-
1. विकास ने सोहन को आम खिलाया।
2. मोहन ने साँप को मारा।
3. राजू ने रोगी को दवाई दी।
4. स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो।
करण कारक और अपादान कारक में अंतर :
करण और अपादान दोनों ही कारकों में से चिन्ह का प्रयोग होता है। परन्तु अर्थ के आधार पर दोनों में अंतर होता है। करण कारक में जहाँ पर से का प्रयोग साधन के लिए होता है वहीं पर अपादान कारक में अलग होने के लिए किया जाता है। कर्ता कार्य करने के लिए जिस साधन का प्रयोग करता है उसे करण कारक कहते हैं। लेकिन अपादान में अलगाव या दूर जाने का भाव निहित होता है। जैसे :-
1. मैं कलम से लिखता हूँ।
2. जेब से सिक्का गिरा।
3. बालक गेंद से खेल रहे हैं।
4. सुनीता घोड़े से गिर पड़ी।
5. गंगा हिमालय से निकलती है।

विभक्तियों की प्रयोगिक विशेषताएं
1. विभक्तियाँ स्वतंत्र होती हैं और इनका अस्तित्व भी स्वतंत्र होता है। क्योंकि एक काम शब्दों का संबंध दिखाना है इस वजह से इनका अर्थ नहीं होता। जैसे :- ने , से आदि।
2. हिंदी की विभक्तियाँ विशेष रूप से सर्वनामों के साथ प्रयोग होकर विकार उत्पन्न करती हैं और उनसे मिल जाती हैं। जैसे :- मेरा , हमारा , उसे , उन्हें आदि।
3. विभक्तियों को संज्ञा या सर्वनाम के साथ प्रयोग किया जाता है। जैसे :- मोहन के घर से यह चीज आई है।
विभक्तियों का प्रयोग :
हिंदी व्याकरण में विभक्तियों के प्रयोग की विधि निश्चित होती हैं।
विभक्तियाँ दो तरह की होती हैं –
1. विश्लिष्ट
2. संश्लिष्ट
जो विभक्तियाँ संज्ञाओं के साथ आती हैं उन्हें विश्लिष्ट विभक्ति कहते हैं। लेकिन जो विभक्तियाँ सर्वनामों के साथ मिलकर बनी होती है उसे संश्लिष्ट विभक्ति कहते हैं। जैसे :- के लिए में दो विभक्तियाँ होती हैं इसमें पहला शब्द संश्लिष्ट होता है और दूसरा शब्द विश्लिष्ट होता है।

कर्ता ने अरु कर्म को, करण रीति से जान।
संप्रदान को, के लिए, अपादान से मान।।
का , के , की, संबंध हैं , अधिकरणादिक में मान।
रे ! हे ! हो ! संबोधन , मित्र धरहु यह ध्यान।।

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