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SET-27 | सामान्य हिन्दी 360° | General Hindi 360°

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सामान्य हिन्दी 360° | रस | SET-27


रस - परिभाषा, भेद और उदाहरण - हिन्दी व्याकरण, RAS IN HINDI

रस : रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है।रस को काव्य की आत्मा माना जाता है।
प्राचीन भारतीय वर्ष में रस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। रस -संचार के बिना कोई भी प्रयोग सफल नहीं किया जा सकता था। रस के कारण कविता के पठन , श्रवण और नाटक के अभिनय से देखने वाले लोगों को आनन्द मिलता है।
या
श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस , छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।
रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है।
भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा- रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ' नाट्यशास्त्र ' में रास रस के आठ प्रकारों का वर्णन किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार है किंतु भरत ने स्थायी भाव को ही रस माना है।
भरतमुनि ने लिखा है- "विभावानुभावव्यभिचारी- संयोगद्रसनिष्पत्ति " अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अत: भरतमुनि के 'रस तत्त्व' का आधारभूत विषय नाट्य में रस की निष्पत्ति है।
अन्य विद्वानों के अनुसार रस की परिभाषा-
आचार्य धनंजय के अनुसार रस की परिभाषा- विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से आस्वाद्यमान स्थायी भाव ही रस है।
साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रस की परिभाषा देते हुए लिखा है:
विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥

डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार रस की परिभाषा: भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही रस है।

आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार रस की परिभाषा: स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा- जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है। उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।

रस के अंग
हिन्दी व्याकरण में रस के चार अवयव या अंग होते हैं। जो इस प्रकार हैं-
1. विभाव
2. अनुभाव
3. संचारी भाव
4. स्थायीभाव

1. रस का विभाव- जो व्यक्ति , पदार्थ, अन्य व्यक्ति के ह्रदय के भावों को जगाते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। इनके आश्रय से रस प्रकट होता है यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते हैं। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वालों को विभाव रस कहते हैं। इन्हें कारण रूप भी कहते हैं।
स्थायी भाव के प्रकट होने का मुख्य कारण आलम्बन विभाव होता है। इसी की वजह से रस की स्थिति होती है। जब प्रकट हुए स्थायी भावों को और ज्यादा प्रबुद्ध, उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं।
रस का विभाव दो तरह का होता है-
1. आलंबन विभाव
2. उद्दीपन विभाव

1. आलंबन विभाव : जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे- नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:-
1. आश्रयालंबन
2. विषयालंबन सीता विषय।
2. उद्दीपन विभाव : जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।

2. रस का अनुभाव-
मनोगत भाव को व्यक्त करने के लिए शरीर विकार को अनुभाव कहते हैं। वाणी और अंगों के अभिनय द्वारा जिनसे अर्थ प्रकट होता है उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभवों की कोई संख्या निश्चित नहीं हुई है। जो आठ अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते हैं उन्हें सात्विकभाव कहते हैं। ये अनायास सहजरूप से प्रकट होते हैं। इनकी संख्या आठ होती है।
1. स्तंभ
2. स्वेद
3. रोमांच
4. स्वर – भंग
5. कम्प
6. विवर्णता
7. अश्रु
8. प्रलय

3. रस का संचारी भाव-
जो स्थानीय भावों के साथ संचरण करते हैं वे संचारी भाव कहते हैं। इससे स्थिति भाव की पुष्टि होती है। एक संचारी किसी स्थायी भाव के साथ नहीं रहता है इसलिए ये व्यभिचारी भाव भी कहलाते हैं। इनकी संख्या 33 मानी जाती है-
हर्ष, चिंता, गर्व, जड़ता, बिबोध, स्मृति, व्याधि, विशाद, शंका, उत्सुकता, आवेग, श्रम, मद, मरण, त्रास, असूया, उग्रता, धृति, निंद्रा, अवहित्था, ग्लानि, मोह, दीनता, मति, स्वप्न, अपस्मार, निर्वेद, आलस्य, उन्माद, लज्जा, अमर्श, चपलता, दैन्य, सन्त्रास, औत्सुक्य, चित्रा, और वितर्क।

4. स्थायीभाव-
स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िरी तक होता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। ऐसे स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।
रस के प्रकार-
1. श्रृंगार रस
2. हास्य रस
3. रौद्र रस
4. करुण रस
5. वीर रस
6. अद्भुत रस
7. वीभत्स रस
8. भयानक रस
9. शांत रस
10. वात्सल्य रस
11. भक्ति रस

हिन्दी में रस की संख्या नौ हैं - वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति रस को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सलता तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं। विवेक साहनी द्वारा लिखित ग्रंथ "भक्ति रस- पहला रस या ग्यारहवाँ रस" में इस रस को स्थापित किया गया है। इस तरह हिंदी में रसों की संख्या 11 तक पहुंच जाती है। हिन्दी
में रस निम्नलिखित 11 हैं-
1. श्रृंगार रस 
2. हास्य रस 
3. रौद्र रस 
4. करुण रस 
5. वीर रस 
6. अद्भुत रस 
7. वीभत्स रस 
8. भयानक रस 
9. शांत रस 
10. वात्सल्य रस 
11. भक्ति रस

1. श्रृंगार रस - नायक नायिका के सौंदर्य तथा प्रेम संबंधी वर्णन को श्रंगार रस कहते हैं श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। इसका स्थाई भाव रति होता है।
उदाहरण-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय।

2. हास्य रस -
हास्य रस का स्थायी भाव हास है। इसके अंतर्गत वेशभूषा, वाणी आदि कि विकृति को देखकर मन में जो प्रसन्नता का भाव उत्पन्न होता है, उससे हास की उत्पत्ति होती है इसे ही हास्य रस कहते हैं।
उदाहरण-
बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय।

3. रौद्र रस - 
इसका स्थायी भाव क्रोध होता है। जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं।
उदाहरण-
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥

4. करुण रस - 
इसका स्थायी भाव शोक होता है। इस रस में किसी अपने का विनाश या अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव विछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं ।
उदाहरण-
रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के।
ग्लानि, त्रास, वेदना - विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके।।

5. वीर रस -
इसका स्थायी भाव उत्साह होता है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है। इस रस के अंतर्गत जब युद्ध अथवा कठिन कार्य को करने के लिए मन में जो उत्साह की भावना विकसित होती है उसे ही वीर रस कहते हैं।
उदाहरण-
बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।।

6. अद्भुत रस - 
इसका स्थायी भाव आश्चर्य होता है। जब ब्यक्ति के मन में विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर जो विस्मय आदि के भाव उत्पन्न होते हैं उसे ही अदभुत रस कहा जाता है।
उदाहरण-
देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया।
क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया॥

7. वीभत्स रस - 
इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है । घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कहलाती है।
उदाहरण-
आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे

8. भयानक रस -
इसका स्थायी भाव भय होता है। जब किसी भयानक या बुरे व्यक्ति या वस्तु को देखने या उससे सम्बंधित वर्णन करने या किसी दुःखद घटना का स्मरण करने से मन में जो व्याकुलता अर्थात परेशानी उत्पन्न होती है उसे भय कहते हैं उस भय के उत्पन्न होने से जिस रस कि उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते हैं।
उदाहरण-
अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल॥
कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार ॥

9. शांत रस - 
इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) होता है। मोक्ष और आध्यात्म की भावना से जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसको शान्त रस नाम देना सम्भाव्य है। इस रस में तत्व ज्ञान कि प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर, परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शान्ति मिलती है। वहाँ शान्त रस कि उत्पत्ति होती है जहाँ न दुःख होता है, न द्वेष होता है।
उदाहरण-
जब मै था तब हरि नाहिं अब हरि है मै नाहिं
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं

10. वात्सल्य रस - 
इसका स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है। माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है।
उदाहरण-
बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवाति
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति

11. भक्ति रस - 
इसका स्थायी भाव देव रति है। इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है।
उदाहरण-
अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई

काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य की आत्मा को ही रस माना है।

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