प्राचीन काल में, जब देवता और असुरों के बीच संग्राम अपने चरम पर था, तब माँ दुर्गा ने रक्तबीज नामक महादैत्य का वध करने के लिए अपना सबसे भयंकर रूप धारण किया था। रक्तबीज का वरदान था कि उसके रक्त की एक बूँद भी यदि धरती पर गिरेगी, तो उससे एक नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाएगा।
युद्धभूमि में माँ काली (दुर्गा का ही क्रोधावतार) ने जैसे ही रक्तबीज पर प्रहार किया, उसके रक्त की बूँदें चारों ओर छिटकने लगीं। हर बूँद से हजारों रक्तबीज खड़े हो गए। देखते-देखते पूरी पृथ्वी रक्तबीजों से भर गई। देवता घबरा गए। माँ काली ने भी क्रोध में आकर अपनी जीभ बाहर निकाल ली और समस्त धरती को अपने मुँह से ढक लिया, ताकि रक्त की एक भी बूँद ज़मीन पर न गिरे।
तब माँ के शरीर से प्रकट हुईं चौसठ शक्तिशाली योगिनियाँ।
ये कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। इनका रूप इतना उग्र और दिव्य था कि देखने मात्र से असुरों की सेना काँप उठती थी। कुछ के हाथ में खड्ग था, कुछ के गले में मुण्डमाला, कुछ नृत्य कर रही थीं, कुछ खून पी रही थीं, कुछ आकाश में उड़ रही थीं। इनकी आँखें लाल, बाल बिखरे हुए, शरीर पर राख लगी हुई। ये माँ शक्ति की आदि शक्तियाँ थीं, जिन्हें तंत्रशास्त्र में “चौसठ योगिनी” कहा जाता है।
इन चौसठ योगिनियों ने चारों दिशाओं में घेरा डाल लिया। जैसे ही रक्तबीज का खून छलकता, योगिनियाँ उसे अपने मुँह में सोख लेतीं या अपने अस्त्र-शस्त्रों से रोक लेतीं। कोई योगिनी विकराल हँसी हँसती थी, कोई डमरू बजा रही थी, कोई खप्पर में रक्त भरकर पी रही थी। उनका नाद इतना भयंकर था कि असुरों के हृदय फटने लगे।
अंत में, जब रक्तबीज का एक भी रक्तकण शेष न बचा, तब माँ काली ने उसका अंतिम सिर काट दिया। रक्तबीज मारा गया। पूरी पृथ्वी पर विजय का डंका बजा। देवताओं ने माँ और चौसठ योगिनियों की स्तुति की।
किंवदंती है कि युद्ध समाप्त होने पर माँ ने इन योगिनियों को वरदान दिया कि जहाँ-जहाँ इनका पूजन होगा, वहाँ भय, रोग और शत्रु कभी नहीं टिकेंगे। इसलिए भारत में अनेक स्थानों पर चौसठ योगिनी के खुले गोलाकार मंदिर बने, जिनमें कोई छत नहीं होती, क्योंकि योगिनियाँ आकाश में निवास करती हैं।
सबसे प्रसिद्ध हैं मध्य प्रदेश के भेड़ाघाट (जबलपुर) और मितावली (मुरैना) के चौसठ योगिनी मंदिर, जहाँ आज भी 64 योगिनियों की मूर्तियाँ विराजमान हैं। कुछ मूर्तियाँ इतनी भयानक हैं कि रात में अकेले देखने की हिम्मत नहीं होती।
लोग कहते हैं, रात के समय इन मंदिरों में योगिनियाँ जीवित हो उठती हैं। डमरू की आवाज़, घंटियों का नाद और विकराल हँसी सुनाई देती है। जो सच्चे मन से इनका स्मरण करता है, उसकी रक्षा स्वयं माँ काली और उनकी चौसठ सखियाँ करती हैं।
लेकिन जो अपवित्र मन से जाता है… उसकी अकाल मृत्यु निश्चित है।
इसलिए आज भी तांत्रिक और साधक अमावस्या की रात में चौसठ योगिनियों का जप करते हैं:-
ॐ ह्रीं चौसठ योगिनी नाम सहित श्री काली कालकण्ठी महाकालिका देव्यै नमः।
